पुरी जगन्नाथ मंदिर की 3rd सीढ़ी ‘यमशिला’ का रहस्य और महत्व
चार धामों में से एक माने जाने वाले इस मंदिर की हर परंपरा, हर अनुष्ठान और यहां तक कि इसकी हर ईंट और सीढ़ी भी गहन आध्यात्मिक संदेशों से भरी हुई है। इन्हीं रहस्यमय परंपराओं में तीसरी सीढ़ी का महत्व सबसे अलग है, जिसे ‘यमशिला’ कहा जाता है।
किंवदंती है कि जब भक्त भगवान जगन्नाथ के दर्शन कर इस सीढ़ी पर माथा टेकते हैं, तो उनके जीवन के सभी पाप क्षीण हो जाते हैं और उन्हें यमलोक के भय से मुक्ति प्राप्त होती है। इसी कारण इसे मोक्ष प्रदान करने वाली सीढ़ी भी कहा जाता है। भक्तजन इसे केवल एक पत्थर नहीं मानते, बल्कि इसे मृत्यु और जीवन के गहन सत्य का प्रतीक मानकर श्रद्धा से पूजते हैं। कई श्रद्धालु यहां झुककर अपने माथे को स्पर्श कर आशीर्वाद मांगते हैं, तो कुछ श्रद्धालु इस सीढ़ी को हाथ जोड़कर प्रणाम करते हैं और आगे बढ़ जाते हैं।
इस विशेष परंपरा का पालन सदियों से लगातार होता आ रहा है और यह जगन्नाथ मंदिर की रहस्यमयी पहचान को और भी गहरा बना देता है। यह मान्यता श्रद्धालुओं को यह संदेश देती है कि भक्ति और समर्पण से न केवल सांसारिक पाप मिटते हैं, बल्कि मृत्यु के भय पर भी विजय प्राप्त की जा सकती है। यही कारण है कि ‘यमशिला’ केवल एक सीढ़ी नहीं, बल्कि ईश्वर और भक्त के बीच अद्वितीय विश्वास का अटूट सेतु है, जो पुरी के इस महान मंदिर को और भी अलौकिक और रहस्यमयी बनाता है।
इस प्रकार, पुरी की रथ यात्रा को केवल एक धार्मिक उत्सव के रूप में नहीं देखा जा सकता, बल्कि यह भारतीय संस्कृति, अध्यात्म और परंपरा की गहरी जड़ों का जीवंत प्रतीक है। यह उत्सव भगवान के रथों के भव्य रूप में सजीव होता है, लेकिन इसकी आत्मा उन अनगिनत मान्यताओं और आस्थाओं में छिपी है, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी मानव जीवन को मार्गदर्शन देती आई हैं। रथ यात्रा केवल भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा के मंदिर से बाहर आने की घटना नहीं है, बल्कि यह इस बात का द्योतक है कि ईश्वर अपने भक्तों तक स्वयं पहुंचते हैं और भक्तों को उनके और करीब आने का अवसर प्रदान करते हैं।
ढोल-नगाड़ों की गूंज, भक्ति गीतों की धुन और श्रद्धालुओं की भीड़ में जब रथ खींचा जाता है, तो वह क्षण केवल उत्सव का नहीं, बल्कि आत्मा और ईश्वर के मिलन का प्रतीक बन जाता है। इस यात्रा में भाग लेने वाले भक्त मानते हैं कि रथ की रस्सी को पकड़कर खींचना ही मोक्ष की राह खोल देता है, क्योंकि यह कर्म, आस्था और भक्ति का अद्भुत संगम है।
सदियों से चली आ रही यह परंपरा पुरी की सीमाओं तक सीमित नहीं रही, बल्कि दुनिया के हर कोने में फैले भक्तों के हृदयों में बसी हुई है। यही कारण है कि यह रथ यात्रा वैश्विक स्तर पर भी भारतीय आध्यात्मिकता और संस्कृति का दूत बन चुकी है। इस उत्सव का हर क्षण यह संदेश देता है कि भक्ति, श्रद्धा और समर्पण से जीवन का हर कठिन रास्ता सरल हो सकता है।
अंततः, पुरी की रथ यात्रा केवल भगवान के रथों का उत्सव नहीं, बल्कि जीवन के गहन सत्य, आध्यात्मिक साधना और दिव्य आनंद का वह अद्वितीय अनुभव है, जो हर साल लाखों श्रद्धालुओं को ईश्वर से जोड़ता है और उनकी आत्मा को अनंत शांति प्रदान करता है।
पुरी की रथ यात्रा और ‘यमशिला’ का रहस्य
पुरी की रथ यात्रा का महत्व केवल धार्मिक दृष्टिकोण तक सीमित नहीं है, बल्कि यह भारतीय संस्कृति, परंपरा और आध्यात्मिक एकता का जीवंत उदाहरण भी है। आषाढ़ महीने की शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को जब भगवान जगन्नाथ, उनके बड़े भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा अपने-अपने विशाल और अलंकृत रथों—नंदीघोष, तालध्वज और दर्पदलना—पर सवार होकर निकलते हैं, तो पूरा पुरी नगरी एक दिव्य उत्सव में बदल जाती है। इस अवसर पर लाखों श्रद्धालु देश-विदेश से यहां पहुंचते हैं, और सभी एक ही उद्देश्य से रथ खींचने के पवित्र कार्य में सहभागी बनते हैं।
मान्यता है कि रथ खींचना केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि आत्मा की मुक्ति का मार्ग भी है। कहते हैं कि जो भक्त श्रद्धा से भगवान के रथ की रस्सी पकड़ता है, उसे पापों से मुक्ति और मोक्ष की प्राप्ति होती है। यही कारण है कि न केवल साधारण भक्त, बल्कि संत, महात्मा और समाज के प्रतिष्ठित लोग भी इस अवसर को अपने जीवन का परम सौभाग्य मानते हैं।
इस यात्रा का एक और गहरा पहलू है—समानता और एकता का संदेश। भगवान स्वयं मंदिर से बाहर आकर भक्तों के बीच आते हैं, जिससे यह भाव प्रकट होता है कि ईश्वर तक पहुँचने के लिए किसी विशेष वर्ग या परंपरा की बाध्यता नहीं है। यह पर्व हमें यह भी सिखाता है कि भक्ति में सभी समान हैं, चाहे वह राजा हो या आमजन।
रथ यात्रा सदियों से भारतीय सभ्यता की उस गहरी जड़ का प्रतीक है, जिसमें आस्था, परंपरा, दर्शन और लोकजीवन का सुंदर संगम देखने को मिलता है। यही कारण है कि पुरी की रथ यात्रा आज भी केवल ओडिशा की नहीं, बल्कि पूरे भारत की पहचान और विश्वभर में भारतीय आध्यात्मिक धरोहर का गौरव बन चुकी है।
पुरी का जगन्नाथ मंदिर अपनी दिव्यता और रहस्यों के कारण केवल आस्था का केंद्र ही नहीं, बल्कि भारतीय आध्यात्मिक विरासत का अद्वितीय प्रतीक भी है। चार धामों में से एक माने जाने वाले इस मंदिर की हर परंपरा, हर अनुष्ठान और यहां तक कि इसकी हर ईंट और सीढ़ी भी गहन आध्यात्मिक संदेशों से भरी हुई है। इन्हीं रहस्यमय परंपराओं में तीसरी सीढ़ी का महत्व सबसे अलग है, जिसे ‘यमशिला’ कहा जाता है।
किंवदंती है कि जब भक्त भगवान जगन्नाथ के दर्शन कर इस सीढ़ी पर माथा टेकते हैं, तो उनके जीवन के सभी पाप क्षीण हो जाते हैं और उन्हें यमलोक के भय से मुक्ति प्राप्त होती है। इसी कारण इसे मोक्ष प्रदान करने वाली सीढ़ी भी कहा जाता है। भक्तजन इसे केवल एक पत्थर नहीं मानते, बल्कि इसे मृत्यु और जीवन के गहन सत्य का प्रतीक मानकर श्रद्धा से पूजते हैं। कई श्रद्धालु यहां झुककर अपने माथे को स्पर्श कर आशीर्वाद मांगते हैं, तो कुछ श्रद्धालु इस सीढ़ी को हाथ जोड़कर प्रणाम करते हैं और आगे बढ़ जाते हैं।
इस विशेष परंपरा का पालन सदियों से लगातार होता आ रहा है और यह जगन्नाथ मंदिर की रहस्यमयी पहचान को और भी गहरा बना देता है। यह मान्यता श्रद्धालुओं को यह संदेश देती है कि भक्ति और समर्पण से न केवल सांसारिक पाप मिटते हैं, बल्कि मृत्यु के भय पर भी विजय प्राप्त की जा सकती है। यही कारण है कि ‘यमशिला’ केवल एक सीढ़ी नहीं, बल्कि ईश्वर और भक्त के बीच अद्वितीय विश्वास का अटूट सेतु है, जो पुरी के इस महान मंदिर को और भी अलौकिक और रहस्यमयी बनाता है।
इस प्रकार, पुरी की रथ यात्रा को केवल एक धार्मिक उत्सव के रूप में नहीं देखा जा सकता, बल्कि यह भारतीय संस्कृति, अध्यात्म और परंपरा की गहरी जड़ों का जीवंत प्रतीक है। यह उत्सव भगवान के रथों के भव्य रूप में सजीव होता है, लेकिन इसकी आत्मा उन अनगिनत मान्यताओं और आस्थाओं में छिपी है, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी मानव जीवन को मार्गदर्शन देती आई हैं। रथ यात्रा केवल भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा के मंदिर से बाहर आने की घटना नहीं है, बल्कि यह इस बात का द्योतक है कि ईश्वर अपने भक्तों तक स्वयं पहुंचते हैं और भक्तों को उनके और करीब आने का अवसर प्रदान करते हैं।
ढोल-नगाड़ों की गूंज, भक्ति गीतों की धुन और श्रद्धालुओं की भीड़ में जब रथ खींचा जाता है, तो वह क्षण केवल उत्सव का नहीं, बल्कि आत्मा और ईश्वर के मिलन का प्रतीक बन जाता है। इस यात्रा में भाग लेने वाले भक्त मानते हैं कि रथ की रस्सी को पकड़कर खींचना ही मोक्ष की राह खोल देता है, क्योंकि यह कर्म, आस्था और भक्ति का अद्भुत संगम है।
सदियों से चली आ रही यह परंपरा पुरी की सीमाओं तक सीमित नहीं रही, बल्कि दुनिया के हर कोने में फैले भक्तों के हृदयों में बसी हुई है। यही कारण है कि यह रथ यात्रा वैश्विक स्तर पर भी भारतीय आध्यात्मिकता और संस्कृति का दूत बन चुकी है। इस उत्सव का हर क्षण यह संदेश देता है कि भक्ति, श्रद्धा और समर्पण से जीवन का हर कठिन रास्ता सरल हो सकता है।
अंततः, पुरी की रथ यात्रा केवल भगवान के रथों का उत्सव नहीं, बल्कि जीवन के गहन सत्य, आध्यात्मिक साधना और दिव्य आनंद का वह अद्वितीय अनुभव है, जो हर साल लाखों श्रद्धालुओं को ईश्वर से जोड़ता है और उनकी आत्मा को अनंत शांति प्रदान करता है।

क्या है यमशिला?
पुरी के जगन्नाथ मंदिर की 22 सीढ़ियां केवल पत्थरों का क्रम नहीं हैं, बल्कि वे गहरे धार्मिक और दार्शनिक अर्थों को अपने भीतर समेटे हुए हैं। इन सीढ़ियों को “बaisi pahacha” (बाईस पगड़ी) कहा जाता है और माना जाता है कि जीवन के हर चरण तथा आत्मा की आध्यात्मिक यात्रा का प्रतीक इन सीढ़ियों में निहित है। प्रत्येक सीढ़ी इंसान के कर्म, धर्म, और जीवन के उतार-चढ़ाव को दर्शाती है।
इनमें तीसरी सीढ़ी का महत्व सबसे अलग है, क्योंकि इसे विशेष रूप से मृत्यु के देवता यमराज से जोड़ा जाता है। एक प्राचीन कथा के अनुसार, यमराज ने भगवान विष्णु से शिकायत की थी कि जगन्नाथ के भक्त केवल उनके दर्शन मात्र से मोक्ष प्राप्त कर रहे हैं और इसलिए उनके लोक—यमलोक—में कोई नहीं आ रहा। इस पर भगवान ने उन्हें यह स्थान प्रदान किया और कहा—“जो भक्त मेरे दर्शन के बाद इस तीसरी सीढ़ी पर पांव रखेगा, उसे तुम्हारे लोक में आना ही होगा, चाहे उसके पाप क्षमा क्यों न हो गए हों।”
इसी कारण इस सीढ़ी को यमशिला कहा जाता है और इसे बहुत श्रद्धा तथा सावधानी से पार किया जाता है। भक्त इस सीढ़ी पर पांव रखने से बचते हैं—कुछ लोग इसे हाथ लगाकर माथे से लगाते हैं, तो कुछ इसे छलांग लगाकर पार करते हैं। इसे अन्य सीढ़ियों से अलग पहचानने के लिए इसका रंग काला किया गया है।
इस मान्यता का संदेश केवल भय या दंड तक सीमित नहीं है, बल्कि यह हमें जीवन और मृत्यु की अपरिहार्यता का बोध कराता है। यह परंपरा हमें यह समझाने का प्रयास करती है कि भक्ति के साथ-साथ कर्म और आत्मा की यात्रा भी उतनी ही महत्वपूर्ण है। यमशिला का रहस्य और श्रद्धा, दोनों मिलकर जगन्नाथ मंदिर को और भी रहस्यमय तथा अद्वितीय बनाते हैं।
कथा के अनुसार जब यमराज ने भगवान विष्णु से यह शिकायत की कि जगन्नाथ के भक्त केवल दर्शन मात्र से ही मोक्ष प्राप्त कर रहे हैं और इस कारण उनके लोक में कोई आत्मा नहीं पहुंच रही, तब भगवान ने मुस्कराते हुए उन्हें एक अद्वितीय वरदान दिया। भगवान ने कहा—
“जो भक्त मेरे दर्शन करने के बाद इस तीसरी सीढ़ी पर पांव रखेगा, उसे तुम्हारे लोक में आना ही होगा, चाहे उसके सभी पाप नष्ट ही क्यों न हो जाएं।”
इस प्रकार तीसरी सीढ़ी यमशिला के रूप में प्रसिद्ध हो गई। यह वरदान केवल यमराज की शिकायत का समाधान ही नहीं था, बल्कि एक गहरा आध्यात्मिक संदेश भी समेटे हुए है। इसका भाव यह है कि मृत्यु एक शाश्वत सत्य है और उससे कोई बच नहीं सकता। चाहे मनुष्य कितना भी धार्मिक या पुण्यात्मा क्यों न हो, अंततः उसे यमराज के लोक का अनुभव करना ही होगा।
भक्त इस मान्यता के कारण तीसरी सीढ़ी को विशेष श्रद्धा और भय दोनों के साथ देखते हैं। मंदिर आने वाले लोग अक्सर इस सीढ़ी पर पांव रखने से बचते हैं। कोई इसे हाथ जोड़कर प्रणाम करता है, तो कोई माथे से लगाकर आगे बढ़ता है। कुछ श्रद्धालु तो इसे बिना स्पर्श किए सीधे चौथी सीढ़ी पर कदम रखते हैं।
यमशिला का यह रहस्य हमें यह याद दिलाता है कि भक्ति और पुण्य से मोक्ष अवश्य संभव है, लेकिन जीवन-मरण का चक्र अनिवार्य है। यह परंपरा हमें मृत्यु की सच्चाई को स्वीकार करने और उसे ईश्वर से जुड़ने के मार्ग का हिस्सा मानने की प्रेरणा देती है। यही कारण है कि जगन्नाथ मंदिर की 22 सीढ़ियां केवल एक प्रवेश मार्ग नहीं, बल्कि जीवन दर्शन की जीती-जागती व्याख्या कही जाती हैं।
इसी कारण यह तीसरी सीढ़ी ‘यमशिला’ के नाम से जानी जाती है और इसे लेकर भक्तों की आस्था में एक विशेष भाव जुड़ा हुआ है। परंपरा के अनुसार, जगन्नाथ मंदिर में दर्शन करने के बाद अधिकांश श्रद्धालु इस सीढ़ी पर पांव रखने से बचते हैं। कुछ लोग श्रद्धापूर्वक झुककर इसे हाथ से स्पर्श कर माथे से लगाते हैं, तो कुछ सीधे अगली सीढ़ी पर कदम रखते हैं। कई भक्त तो मानो मृत्यु के भय और श्रद्धा के मिश्रित भाव से इसे पूरी तरह छोड़ते हुए छलांग लगाकर पार कर जाते हैं।
यही नहीं, ताकि यह विशेष सीढ़ी अन्य सीढ़ियों से अलग पहचान में आ सके, इसे वर्षों से काले रंग से रंगने की परंपरा चली आ रही है। बाकी सभी सीढ़ियां सामान्य पत्थर की ही रहती हैं, लेकिन तीसरी सीढ़ी अपने काले रंग और आध्यात्मिक महत्व के कारण अलग दिखाई देती है। यह परंपरा केवल एक धार्मिक मान्यता नहीं, बल्कि एक गहरा जीवन-संदेश भी देती है—कि मृत्यु का सत्य अवश्यंभावी है और उससे कोई भी बच नहीं सकता।
यमशिला का यह स्वरूप भक्तों को निरंतर यह स्मरण कराता है कि जीवन क्षणभंगुर है, और इस अनिश्चित यात्रा के बीच केवल ईश्वर भक्ति ही वह सहारा है जो मनुष्य को मोक्ष की ओर ले जाती है। यही कारण है कि जगन्नाथ मंदिर की 22 सीढ़ियों में तीसरी सीढ़ी का महत्व अद्वितीय और अत्यंत रहस्यमय माना जाता है।
यह परंपरा सदियों से अटूट रूप से चली आ रही है और आज भी उतनी ही श्रद्धा के साथ निभाई जाती है। यह हमें यह समझाती है कि किस प्रकार लोककथाएं, पौराणिक मान्यताएं और गहरी आस्था मिलकर जगन्नाथ मंदिर को न केवल एक धार्मिक स्थल बनाती हैं, बल्कि उसे रहस्य और अद्वितीयता से भी ओतप्रोत कर देती हैं। तीसरी सीढ़ी, जिसे यमशिला कहा जाता है, भक्तों के लिए केवल पत्थर का टुकड़ा नहीं, बल्कि जीवन और मृत्यु के शाश्वत सत्य का सजीव प्रतीक है।
भक्त जब मंदिर की इन सीढ़ियों से गुजरते हैं, तो उन्हें केवल वास्तुशिल्प का अनुभव नहीं होता, बल्कि यह सीढ़ियां उनके भीतर गहरे आध्यात्मिक विचार भी जगाती हैं। यमशिला का दर्शन उन्हें यह स्मरण कराता है कि मृत्यु कोई अंत नहीं, बल्कि आत्मा की यात्रा का एक पड़ाव है। इसी कारण इसे पार करते समय हर भक्त के मन में श्रद्धा, भय और भक्ति का अनोखा संगम दिखाई देता है।
जगन्नाथ मंदिर की इस परंपरा ने पीढ़ी-दर-पीढ़ी आस्था को और दृढ़ बनाया है। यह हमें यह भी सिखाती है कि धर्म केवल अनुष्ठानों का संग्रह नहीं, बल्कि जीवन के बड़े सत्यों को समझने और आत्मसात करने का माध्यम है। यही कारण है कि जगन्नाथ मंदिर की तीसरी सीढ़ी आज भी रहस्य, भक्ति और दिव्यता का अद्वितीय प्रतीकबनी हुई है।
विजयनगरम की भव्य रथ यात्रा
पुरी की परंपरा और गहन भक्ति भावना को आगे बढ़ाते हुए आंध्र प्रदेश के विजयनगरम में भी भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा का आयोजन अत्यंत भव्य और श्रद्धा से परिपूर्ण माहौल में हुआ। यहां भगवान जगन्नाथ, उनके भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा की लकड़ी की प्रतिमाओं को बड़ी ही खूबसूरती से सजाया गया। रंग-बिरंगे फूलों की मालाओं, पारंपरिक वस्त्रों और आभूषणों से सुसज्जित ये प्रतिमाएं जब रथ पर विराजमान हुईं, तो श्रद्धालुओं की आंखें भक्तिभाव से भर उठीं।
जैसे ही रथ यात्रा प्रारंभ हुई, हजारों श्रद्धालु हाथों में रस्सियां थामे भगवान का रथ खींचने लगे। मान्यता है कि रथ खींचने का सौभाग्य पाकर भक्त न केवल पुण्य अर्जित करते हैं, बल्कि ईश्वर से गहरा आत्मिक जुड़ाव भी अनुभव करते हैं। इस दौरान वातावरण भक्तिमय हो उठा—ढोल-नगाड़ों की गूंज, शंखों की ध्वनि और भक्ति गीतों की मधुर लय ने हर किसी को मंत्रमुग्ध कर दिया। गलियों और मार्गों पर फूल बरसाए गए, महिलाएं मंगल गीत गाती रहीं और बच्चे जयकारों में सम्मिलित होकर माहौल को और भी जीवंत बना रहे।
पूरी यात्रा के दौरान भक्तों की आस्था और ऊर्जा देखते ही बनती थी। हर कोई इस अद्भुत अवसर को अपने जीवन का सौभाग्य मान रहा था। विजयनगरम की इस रथ यात्रा ने यह साबित कर दिया कि भगवान जगन्नाथ की परंपरा और भक्ति केवल पुरी तक सीमित नहीं, बल्कि पूरे भारतवर्ष में समान श्रद्धा और उत्साह के साथ जीवित है। यहां का आयोजन न केवल धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण रहा, बल्कि इसने समाज में एकता, सेवा और सहयोग की भावना को भी गहराई से स्थापित किया।
विजयनगरम का भगवान जगन्नाथ स्वामी मंदिर लगभग 800 वर्षों से इस क्षेत्र की आस्था और परंपरा का केंद्र बना हुआ है। यह मंदिर न केवल धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि इसकी ऐतिहासिक विरासत भी इसे और विशेष बनाती है। स्थानीय लोगों का विश्वास है कि यह मंदिर जगन्नाथ संस्कृति और परंपरा को दक्षिण भारत की भूमि पर जीवित रखने वाला प्रमुख धाम है।
हर साल रथ यात्रा के अवसर पर यहां का वातावरण पूरी तरह भक्ति और उत्साह में डूब जाता है। इस बार भी मंदिर परिसर और आसपास का इलाका श्रद्धालुओं से खचाखच भरा रहा। हजारों लोग सुबह से ही मंदिर पहुंच गए थे ताकि भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा के रथों के दर्शन कर सकें और उन्हें खींचने का सौभाग्य प्राप्त कर सकें। यात्रा के दौरान जयकारों की गूंज और भजन-कीर्तन की स्वर लहरियां वातावरण को आध्यात्मिक ऊर्जा से भर रही थीं।
इतनी बड़ी भीड़ को देखते हुए सेवा समिति के सदस्य—कपुगंटी प्रकाश, दादी भास्कर राव और पवन कल्याण—ने समर्पण और जिम्मेदारी के साथ संपूर्ण व्यवस्था का नेतृत्व किया। भक्तों के लिए जलपान और प्रसाद की व्यवस्था की गई, सुरक्षा और भीड़ प्रबंधन के लिए स्वयंसेवक तैनात रहे और रथ खींचने की सभी तैयारियां सावधानीपूर्वक की गईं। उनकी सूझबूझ और मेहनत का ही परिणाम था कि विशाल भीड़ के बावजूद पूरा आयोजन शांति और अनुशासन के साथ संपन्न हुआ।
इस तरह विजयनगरम का यह 800 साल पुराना मंदिर न केवल श्रद्धालुओं को भगवान जगन्नाथ के दिव्य दर्शन कराता है, बल्कि हर वर्ष की रथ यात्रा के माध्यम से सेवा, समर्पण और आस्था की परंपरा को और भी मजबूत करता है।
इस वर्ष आयोजित विजयनगरम की रथ यात्रा ने यह स्पष्ट कर दिया कि भगवान जगन्नाथ की भक्ति और परंपरा किसी एक भौगोलिक क्षेत्र तक सीमित नहीं है। पुरी की तरह यहां भी श्रद्धालुओं का उत्साह देखते ही बन रहा था। रथ खींचने की परंपरा, भजन-कीर्तन की मधुर गूंज, और हजारों लोगों की सामूहिक भागीदारी ने यह सिद्ध कर दिया कि भगवान की कृपा जहां-जहां है, वहां रथ यात्रा का वही दिव्य वातावरण और वही भक्ति भावना जीवित रहती है।
इस आयोजन ने भक्तों की आस्था को न केवल और गहरा किया, बल्कि यह भी साबित किया कि रथ यात्रा का महत्व पुरी की सीमाओं से आगे बढ़कर पूरे भारत की सांस्कृतिक धरोहर बन चुका है। विजयनगरम की धरती पर जब भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा के भव्य रथ आगे बढ़े, तो लगा मानो पुरी की पवित्र परंपरा दक्षिण भारत की गलियों और चौपालों में पुनः जीवंत हो उठी हो।
इस भव्य आयोजन ने यह संदेश दिया कि परंपरा और संस्कृति समय और स्थान से परे हैं। वे जहां श्रद्धा और समर्पण मिलता है, वहीं उसी जोश और भक्ति के साथ पल्लवित-पुष्पित होती हैं। विजयनगरम की रथ यात्रा ने न केवल पुरी की परंपरा को आगे बढ़ाया, बल्कि उसे और भी चमकदार बना दिया, जिससे दक्षिण भारत में भी जगन्नाथ भक्ति की गूंज दूर-दूर तक फैल गई।
परवतीपुरम में भी रथ खींचने उमड़े लोग
परवतीपुरम, जिसे अक्सर ओडिशा का प्रवेश द्वार कहा जाता है, इस वर्ष भगवान जगन्नाथ की भव्य रथ यात्रा का केंद्र बना। यहां का दृश्य पुरी की तरह ही अद्वितीय और आस्था से परिपूर्ण रहा। पूरे नगर को भक्ति रंग में रंग दिया गया था—सड़कों पर फूलों की सजावट, पताकाओं और रोशनियों से सजे रथ, और वातावरण में गूंजते हरि बोल तथा जय जगन्नाथ के उद्घोष। श्रद्धालुओं का उत्साह इतना था कि सुबह से ही हजारों की संख्या में लोग मंदिर और मार्गों पर एकत्रित हो गए।
जब रथ यात्रा प्रारंभ हुई, तो आंध्र प्रदेश के कृषि मंत्री के. अच्चनायडु और स्थानीय विधायक बोनेला विजया चंद्र स्वयं आगे बढ़कर रथ खींचने लगे। उनके इस कार्य ने भक्तों का मनोबल और भी बढ़ा दिया, और हर कोई इस पुण्य अवसर में सहभागी बनने के लिए उत्साहित हो उठा। माना जाता है कि भगवान के रथ को खींचना केवल भक्ति का प्रतीक ही नहीं, बल्कि सेवा और समर्पण का मार्ग भी है।
पूरी यात्रा के दौरान ढोल-नगाड़ों, शंख-घंटियों और भजन-कीर्तन की गूंज ने परवतीपुरम को एक जीवंत तीर्थस्थल में बदल दिया। श्रद्धालु फूल बरसाते रहे, महिलाएं मंगलगीत गाती रहीं और बच्चे जयकारों में शामिल होकर उत्सव को और भी पवित्र बनाते रहे।
यह आयोजन न केवल धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण रहा, बल्कि इसने परवतीपुरम की सांस्कृतिक धरोहर को भी नई पहचान दिलाई। जिस तरह पुरी की रथ यात्रा विश्वभर में प्रसिद्ध है, उसी प्रकार परवतीपुरम की यह भव्यता यह दर्शाती है कि भगवान जगन्नाथ की कृपा और भक्ति का संदेश सीमाओं से परे जाकर हर दिल को छूता है।
इस अवसर पर विधायक बोनेला विजया चंद्र ने अपने संबोधन में कहा कि परवतीपुरम की रथ यात्रा केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं है, बल्कि यह उस सांस्कृतिक विरासत और भक्ति परंपरा का प्रतीक है, जो सदियों से यहां के लोगों के जीवन का हिस्सा रही है। उन्होंने बताया कि इस आयोजन को यहां उसी पारंपरिक रीति-रिवाजों और श्रद्धा के साथ मनाया जाता है, जैसा पुरी में होता है। रथ सजावट से लेकर यात्रा की विधि-विधान तक, हर पहलू में शुद्धता और परंपरा का विशेष ध्यान रखा जाता है।
उन्होंने आगे कहा कि हर गुजरते साल के साथ परवतीपुरम की रथ यात्रा और भी भव्य होती जा रही है। मंदिर समिति, स्वयंसेवक और स्थानीय नागरिक मिलकर इसे उत्सव का रूप देते हैं। इसके चलते न केवल स्थानीय श्रद्धालु, बल्कि दूर-दराज़ से आने वाले भक्त भी यहां शामिल होते हैं। यही वजह है कि हर साल यहां भक्तों की संख्या लगातार बढ़ रही है और परवतीपुरम की पहचान धार्मिक आस्था के एक बड़े केंद्र के रूप में स्थापित हो रही है।
विधायक विजया चंद्र ने यह भी कहा कि इस तरह के आयोजन केवल आस्था का ही नहीं, बल्कि सामाजिक एकता और सामूहिक सहयोग का भी उदाहरण हैं। जब सभी मिलकर रथ खींचते हैं और सेवा में सहभागी बनते हैं, तो यह दर्शाता है कि भक्ति का असली स्वरूप केवल भगवान की पूजा-अर्चना तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें सेवा, सहयोग और सामूहिकता भी उतनी ही महत्वपूर्ण है। उन्होंने विश्वास जताया कि आने वाले वर्षों में परवतीपुरम की रथ यात्रा और भी बड़े स्तर पर आयोजित होगी और इसकी भव्यता पूरे देश में चर्चित होगी।
पूरे शहर को इस मौके पर दुल्हन की तरह सजाया गया था। जगह-जगह भक्ति संगीत, भजन-कीर्तन और झांकियों का आयोजन हुआ। मंदिर समितियों और स्वयंसेवकों ने मिलकर व्यवस्था संभाली ताकि भक्तगण आराम से दर्शन कर सकें। इस तरह परवतीपुरम की रथ यात्रा ने यह संदेश दिया कि भगवान जगन्नाथ की भक्ति और परंपरा सीमाओं से परे है और जहां भी आस्था है, वहां वही पुरी का उल्लास और वही दिव्य अनुभव मिलता है।

एकता, आस्था और परंपरा का पर्व
पुरी, विजयनगरम और परवतीपुरम में संपन्न हुई रथ यात्राओं का सामूहिक स्वरूप भारतीय संस्कृति की उस गहराई को सामने लाता है, जो भौगोलिक सीमाओं और भाषाई विविधताओं से परे जाकर एकता और भक्ति की धारा में सबको जोड़ देता है। भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा यह प्रमाणित करती है कि आस्था केवल किसी विशेष क्षेत्र या समुदाय तक सीमित नहीं है, बल्कि यह पूरे राष्ट्र की साझा धरोहर है।
जब लाखों श्रद्धालु एक साथ रथ खींचने के लिए उमड़ते हैं, तो यह केवल धार्मिक कर्तव्य नहीं रह जाता, बल्कि एक सामूहिक आध्यात्मिक अनुभव बन जाता है। रथ खींचते समय हर भक्त यह महसूस करता है कि वह भगवान को अपने करीब ला रहा है और स्वयं भी उनके और नजदीक हो रहा है। यही भावना सबको समान बनाती है—चाहे वह साधारण ग्रामीण हो या बड़ा अधिकारी, सब भगवान के रथ को खींचते हुए एक ही पंक्ति में खड़े दिखते हैं।
भजन-कीर्तन से गूंजता वातावरण, ढोल-नगाड़ों की थाप और भक्तों की आंखों में झलकती आस्था यह संदेश देती है कि रथ यात्रा केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि एक जीवित परंपरा है। यह वह धरोहर है जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी स्थानांतरित होती रही है और आज भी उतनी ही सशक्त है जितनी सदियों पहले थी।
इस प्रकार, पुरी, विजयनगरम और परवतीपुरम की रथ यात्राएं यह स्पष्ट करती हैं कि भगवान जगन्नाथ की भक्ति भारतीय समाज की आत्मा में गहराई तक रची-बसी है। यह भक्ति न केवल ईश्वर से जुड़ने का मार्ग है, बल्कि लोगों को आपसी भाईचारे, सेवा और समर्पण की शक्ति से भी जोड़ती है।
पुरी की यमशिला जैसी परंपराएं न केवल धार्मिक आस्था का हिस्सा हैं, बल्कि वे हमें जीवन के सबसे गहन और अनिवार्य सत्य—जन्म और मृत्यु—के बारे में भी सोचने पर मजबूर करती हैं। यह परंपरा हमें यह समझाने का प्रयास करती है कि मृत्यु अंत नहीं है, बल्कि आत्मा की यात्रा का एक नया अध्याय है। यमशिला की मान्यता यह सिखाती है कि चाहे पाप नष्ट भी हो जाएं, जीवन और मृत्यु का चक्र अटल है, और इसी से मनुष्य को कर्म, धर्म और भक्ति के महत्व का बोध होता है।
भक्ति का असली अर्थ केवल मंदिर में पूजा-अर्चना करना नहीं है, बल्कि यह आत्मा को शुद्ध करने और जीवन को सार्थक बनाने की एक निरंतर साधना है। जब भक्त रथ खींचते हैं, तो यह केवल एक रस्म नहीं होती, बल्कि इसमें सेवा, समर्पण और ईश्वर से आत्मिक जुड़ाव का गहरा संदेश छिपा होता है। रथ खींचना हमें यह सिखाता है कि ईश्वर तक पहुंचने का मार्ग कठिनाई भरा हो सकता है, लेकिन सामूहिक प्रयास, निस्वार्थ सेवा और दृढ़ श्रद्धा से हर बाधा पार की जा सकती है।
इस प्रकार, पुरी की परंपराएं और रथ यात्रा जैसे अनुष्ठान हमें यह याद दिलाते हैं कि धर्म केवल अनुष्ठानों तक सीमित नहीं है। यह जीवन जीने की कला है, जो हमें सिखाती है कि कैसे सांसारिक मोह-माया से ऊपर उठकर हम आध्यात्मिक सत्य की ओर अग्रसर हों। यही कारण है कि जगन्नाथ की भक्ति और उनसे जुड़ी परंपराएं समय के साथ और भी गहन होती जाती हैं, और हर वर्ष लाखों लोगों को आत्मिक शांति और जीवन का सच्चा अर्थ समझने का अवसर प्रदान करती हैं।
हर साल भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा आस्था और भक्ति का ऐसा अद्वितीय संगम प्रस्तुत करती है, जो लाखों लोगों को एक अदृश्य धागे में जोड़ देती है। पुरी की गूढ़ और रहस्यमयी मान्यताओं से लेकर विजयनगरम और परवतीपुरम की पारंपरिक भव्यता तक, हर जगह इस उत्सव का स्वरूप अलग दिखाई देता है, लेकिन उसका सार एक ही रहता है—ईश्वर के प्रति अटूट विश्वास और समाज की सामूहिक शक्ति। यही विविधता में एकता इस यात्रा को और भी विशेष बना देती है।
पुरी में जहां यमशिला जैसी मान्यताएं हमें जीवन और मृत्यु की गहराई पर चिंतन करने को प्रेरित करती हैं, वहीं विजयनगरम और परवतीपुरम में रथ खींचने की परंपरा हमें सेवा और समर्पण के महत्व का बोध कराती है। लाखों श्रद्धालु जब एक साथ रथ खींचते हैं, तो वह दृश्य केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति की जीवंतता और एकजुटता का सशक्त प्रतीक बन जाता है।
सदियों पुरानी यह परंपरा आज भी उसी जोश, उमंग और श्रद्धा के साथ जीवित है। समय बदला है, समाज बदला है, लेकिन भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा की महिमा और उसका प्रभाव आज भी उतना ही प्रबल है जितना पूर्वजों के दौर में था। यही कारण है कि यह यात्रा केवल एक धार्मिक उत्सव नहीं रह गई, बल्कि भारतीयता, आस्था और एकता का ऐसा पर्व बन चुकी है, जो हर साल करोड़ों लोगों को एक साथ जोड़कर यह संदेश देती है कि हमारी संस्कृति और परंपराएं कभी मुरझा नहीं सकतीं—वे हमेशा नई ऊर्जा के साथ फलती-फूलती रहेंगी।
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